गुजरात चुनाव पर देश की नजर

(अजीत द्विवेदी)
गुजरात में लोकसभा चुनाव की घोषणा हो गई है। हिमाचल प्रदेश में चुनाव की घोषणा करने के 19 दिन के बाद चुनाव आयोग ने गुजरात में चुनाव की तारीखों का ऐलान किया। इस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात के दो लंबे लंबे दौरे हुए और हजारों करोड़ रुपए की परियोजनाओं का उद्घाटन व लोकार्पण हुआ। इस क्रम में स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की प्रक्रिया एक प्रहसन बन गई और चुनाव आयोग उपहास का विषय बन गया। क्योंकि चुनाव की घोषणा के 19 दिन पहले देश को पता था कि वोटों की गिनती आठ दिसंबर को होगी। अब पता चल गया है कि मतदान एक और पांच दिसंबर को होगा। ऐसा स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव आयोग कहां होगा? लेकिन वह अलग से विमर्श का विषय है। अभी पूरे देश की दिलचस्पी का केंद्र गुजरात विधानसभा का चुनाव है। भाजपा पिछली बार की तरह कांटे के मुकाबले में जीतेगी या आसान व बड़ी जीत हासिल करेगी? मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर कांग्रेस बनी रहेगी या आम आदमी पार्टी उसको रिप्लेस करेगी? आम आदमी पार्टी वास्तविक मुकाबले में है या वह सिर्फ वोट काटने की राजनीति कर रही है? ये तमाम सवाल हैं, जिन पर देश की नजर है।
गुजरात के विधानसभा चुनाव पर देश की नजर इस वजह से भी है कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का गृह प्रदेश है। प्राचीन मिथकों के हिसाब से कहें तो गुजरात वह तोता है, जिसमें मोदी और शाह दोनों की जान बसी हुई है। अगर गुजरात में कोई उलटफेर होगा तो दोनों की राजनीति में भूचाल आएगा। फिर देश की राजनीति और सत्ता उनके हाथ से रेत की तरह फिसल जाएगी। गुजरात के चुनाव पर देश की नजर इसलिए भी है क्योंकि यह अर्थव्यवस्था को समझने वाले लोगों का राज है। हालांकि नोटबंदी के बाद हुए चुनावों में इस राज्य के लोगों ने भाजपा को निराश नहीं किया था। इसके बावजूद विधानसभा चुनाव में मुकाबला कांटे का हो गया था। भाजपा बहुत मुश्किल से बहुमत का आंकड़ा पार कर पाई थी और उसके विधायकों की संख्या 99 पर रूक गई थी। ऐसा इस तथ्य के बावजूद हुआ था कि 2017 में नोटबंदी का पूरा असर दिखना शुरू नहीं हुआ था और वह प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी का राज्य विधानसभा का पहला चुनाव था। उसके बाद के पांच सालों में नोटबंदी का भयावह असर दिखा है और कोरोना के दो साल में सारे काम धंधे चौपट हुए हैं। इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि राज्य के लोग मोदी और शाह की गुजराती अस्मिता और दूसरे भावनात्मक मुद्दों से ऊपर उठ कर आर्थिक मुद्दों पर मतदान करते हैं या नहीं! चुनाव से पहले सीएसडीएस और लोकनीति के सर्वेक्षण में लोगों ने महंगाई, बेरोजगारी और गरीबी को लेकर चिंता जताई। करीब 70 फीसदी लोगों ने इसे अपनी परेशानी का बड़ा मुद्दा बताया है।
गुजरात के चुनाव पर देश भर की नजर इसलिए भी है क्योंकि राज्य में 27 साल से भाजपा की सरकार है और इतने लंबे एंटी इन्कंबैंसी का हिसाब भाजपा को चुकाना है। ऊपर से चुनाव से ऐन पहले मोरबी में पुल गिरने की दुखद घटना से विकास मॉडल की भी पोल खुल गई है। हालांकि राज्य के मुख्यमंत्री और सभी मंत्रियों को बदल कर भाजपा ने एक कार्ड पिछले साल ही चल दिया था। इसके बावजूद भाजपा के खिलाफ व्यापक एंटी इन्कंबैंसी है। विधायकों के खिलाफ, जो लगातार जीत रहे हैं, सांसदों के खिलाफ क्योंकि वे भी लगातार जीत रहे हैं और डबल इंजन की सरकार के खिलाफ क्योंकि केंद्र और राज्य दोनों जगह भाजपा की सरकार है। उसमें भी प्रधानमंत्री और गृह मंत्री दोनों गुजरात के हैं। स्थानीय स्तर पर ज्यादातर निकायों पर भाजपा का कब्जा है। अगले लोकसभा चुनाव में इस तरह की स्थिति देश के स्तर पर होगी क्योंकि केंद्र सरकार के खिलाफ 10 साल की एंटी इन्कंबैंसी होगी और ज्यादातर राज्यों में जहां भाजपा की सरकार है वहां डबल इंजन सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी माहौल होगा। भाजपा के ज्यादातर सांसद लगातार दो बार से जीत रहे हैं। सो, उनके खिलाफ भी माहौल होगा। तभी यह देखना भी दिलचस्प होगा कि भाजपा गुजरात में कितने विधायकों की टिकट काटती है। उससे पता चलेगा कि लोकभा चुनाव में कितने सांसदों की टिकट कटेगी!
गुजरात के चुनाव पर इसलिए भी देश की नजर है क्योंकि गुजरात संघ और भाजपा के हिंदुत्व की प्रयोगशाला रहा है और वहां अब आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल हिंदुत्व के प्रयोग कर रहे हैं। उन्होंने गुजरात के लोगों को ढेर सारी मुफ्त की चीजें देने की घोषणा के बीच यह भी मांग की है कि रुपए पर लक्ष्मीजी और गणेशजी की फोटो लगाई जाए। उन्होंने इसके लिए प्रधानमंत्री को चि_ी लिखी है। बिलकिस बानो के बलात्कारियों की रिहाई का जो प्रयोग भाजपा की सरकार ने किया वे उस प्रयोग में भी शामिल हैं। उन्होंने और उनकी पार्टी ने यह कहते हुए इस पर कोई टिप्पणी करने से इनकार कर दिया था कि यह उनका मुद्दा नहीं है। सो, एक तरफ कई दशक के प्रयास से गुजरात में जड़ जमा चुका भाजपा का हिंदुत्व है तो दूसरी ओर इंस्टेंट कॉफी की तरह आया केजरीवाल का हिंदुत्व है। वे लोगों को फ्री बिजली व पानी, महिलाओं को एक एक हजार रुपए महीना देने और स्कूल व अस्पताल बनाने के वादे के साथ हिंदुत्व का तडक़ा लगा रहे हैं। इससे अगर उनको कुछ सफलता मिलती है तो 2024 में इस प्रयोग को देश के स्तर पर दोहराया जाएगा।
गुजरात के चुनाव पर पूरे देश की नजर इस वजह से भी होगी क्योंकि यह लोकसभा चुनाव के पूर्वाभ्यास यानी रिहर्सल की तरह लड़ा जाएगा। इस चुनाव से विपक्षी एकता की जरूरत ज्यादा मजबूती से प्रमाणित होगी। अभी जो राजनीतिक तस्वीर दिख रही है उसमें लग रहा है कि आम आदमी पार्टी सत्ता विरोधी वोट का बंटवारा कर रही है और इसका फायदा भाजपा को हो सकता है। पिछले चुनाव में भाजपा को 49 फीसदी वोट और 99 सीटें मिली थीं। आमने सामने की लड़ाई में कांग्रेस को 42 फीसदी के करीब वोट और 77 सीटें मिली थीं। इस बार आम आदमी पार्टी की मौजूदगी से सत्ता विरोधी वोट को एक विकल्प उपलब्ध हुआ है। मतदाताओं का एक बड़ा समूह है, जिसको लग रहा है कि इतने दशकों से देख रहे हैं कि कांग्रेस नहीं हरा पा रही है भाजपा को तो क्यों नहीं आम आदमी पार्टी को आजमाया जाए। इस सोच में कुछ लोग कांग्रेस छोड़ कर आप के साथ जा सकते हैं। पर मुश्किल यह है कि आप के पास पूरे गुजरात में संगठन नहीं है, कार्यकर्ता नहीं हैं और अखिल गुजरात में असर रखने वाले नेता नहीं हैं। गुजरात कोई दिल्ली जैसा छोटा राज्य नहीं है, जहां हवा बना कर चुनाव जीता जा सकेगा। ध्यान रहे पंजाब में भी आप को जीतने में 10 साल लग गए थे। सो, आप को एक विकल्प के तौर पर आजमाने वाला वोट कांग्रेस से टूटेगा तो दूसरी ओर गांवों में, जहां आप का संगठन नहीं है वहां कांग्रेस का वोट एकजुट रहेगा। दस फीसदी के करीब अल्पसंख्यक वोट भी अब शायद ही आप के साथ जाए। ऐसे में भाजपा विरोधी वोट का बंटवारा होगा। आप को जितना वोट मिलेगा, कांग्रेस को उतने वोट और उसी अनुपात में सीटों का नुकसान होने की संभावना है। ऐसा होने पर उम्मीद की जा सकती है कि विपक्षी पार्टियां कुछ सबक लेंगी और अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा विरोधी वोट का बंटवारा रोकने की पहल करेंगी।