विश्व पर्यावरण दिवस के उपलक्ष्य पर अल्मोड़ा में नौलों की साफ सफाई के साथ किया वृक्षारोपण
अल्मोड़ा : विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून के उपलक्ष्य में टेक्नो हब, नौला फाउंडेशन और सोबन सिह जीना विश्व विद्यालय ने बच्चों के साथ मिलकर अल्मोड़ा मे चिन्हित नौले धारों की साफ सफाई के साथ साथ उनपर छात्रों द्वारा ऐपण भी किया गया। अल्मोड़ा विश्वविद्यालय के परिसर में विभिन्न प्रकार के वृक्षों का वृक्षारोपण किया गया तथा परिसर की साफ सफाई की गयी।
पर्यावरणविद डॉ रीमा पंत ने बताया कि हिमालयी मिश्रित वर्षा वनों से उत्पन्न परम्परागत जल स्रोतों स्प्रिंग नौलों धारों गधेरों से बनी छोटी छोटी नदियाँ एक जटिल वेब बनाती है जो गंगा बेसिन समेत समस्त जलागम में बारहमासी जल आपूर्ति की रीढ़ है। मिश्रित जंगल न केवल पानी को संरक्षित करते है बल्कि जल सपंज को भी बनाये रखते है। बहुमूल्य बायोमास समेत जैव विविधता से भरपूर मिश्रित वर्षा वन सम्पदा को मानवीय लापरवाही कहें या लालच जंगलों की आग यानी फ़ॉरेस्ट फ़ायर से बर्बाद होते देखना सबसे बड़ा कष्ट दायक है क्योंकि स्थानीय समुदाय ही इन्हीं वन सम्पदा का असल हितधारक है। भारत वर्ष में नदियों के जल का 70% स्प्रिंगफेड यानि मिश्रित वनों से बनने प्राकृतिक भूजल जल स्रोत स्प्रिंग है, जो वनाच्छादन की कमी, वर्षा का अनियमित वितरण एवं अनियंत्रित विकास प्रक्रिया के कारण सूखते जा रहे हैं। विश्व भर में पेयजल की कमी एक संकट बनती जा रही है। इसका कारण पृथ्वी के जलस्तर का लगातार नीचे जाना भी है। इसके लिये वर्षा का जल जो बहकर सागर में मिल जाता है, उसका संचयन और पुनर्भरण किए जाने से है। वर्षा के जल का संचय अति आवश्यक है, ताकि भूजल संसाधनों का संवर्धन हो पाए। अकेले भारत में ही व्यवहार्य भूजल भण्डारण का आकलन 214 बिलियन घन मी. (बीसीएम) के रूप में किया गया है जिसमें से 160 बीसीएम की पुन: प्राप्ति हो सकती है। इस समस्या का एक समाधान जल संचयन है।
आज नदियों के पुनर्जीवन हेतु सरकार और स्थानीय सामाजिक संस्थाओ के साथ साथ स्थानीय जन भागीदारी को भी आगे आकर हिमालय के सूख रहे पारम्परिक जल स्रोत नौले, धारे, गाढ़-गधेरों के साथ वहां की जैव विविधता को भी बचाना होगा और अब ऐसे संतुलित कानून बनाने होंगे। हमें अपनी नदियों को यदि बचाना है तो नदी किनारों पर किसी प्रकार छेड़छाड़ न करें, जो वृक्ष लगे हैं उन्हें रहने दे, वे स्वयं अपनी सन्तति से नए वृक्षों को जन्म देते रहेंगे, और नदी को सदानीरा बना देंगे। हिमालय का संरक्षण बिना समुदायक सहभागिता केवल अलग अलग विभागों के भरोसे नहीं किया जा सकता है। आज विभिन्न विभागों में समन्वय की बहुत जरूरत है। लुप्त प्राय स्प्रिंग्स, सूख चुकी जल धाराएं, कम होते जंगल, उर्वरा मिटटी का वर्षा जल से बह जाना, वनों पर निर्भर आजीविका आदि बड़े मुद्दे हैं जिनमें सभी विभागों के समन्वय की जरूरत आन पड़ी है। आज पुराने अनुभवों का अध्ययन किया जाना चाहिए। कार्यक्रम में टेक्नो हब से डॉ रीमा पंत, सिदार्थ, नौला फाउंडेशन से गजेंद्र पाठक, संदीप मनराल, गणेश कठायत, गौरव मनराल तथा सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय से डॉ ममता असवाल, के साथ विश्वविद्यालय के छात्र उपस्थित रहे।