सहयोग, सहानुभूति और सेवा ही जीवन का आधार: स्वामी चिदानन्द सरस्वती

ऋषिकेश। परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष स्वामी चिदानन्द सरस्वती ने कहा कि पूरी दुनिया एक ऐसे दौर से गुजरी जिसमें सभी को ’सहयोग, सहानुभूति और सेवा’ की सबसे अधिक जरूरत पड़ी। पूरा वर्ष कभी आशा और कभी निराशा में बीत गया परन्तु ’कालेन समौषधं’ समय सबसे बेहतर मरहम लगाने वाला होता है। अब जो समय हम सभी को मिला है उसे साधना, समर्पण और सेवा में लगायें इससे जीवन में शान्ति और तनाव से मुक्ति मिलेगी तथा इन तीन स्तंभों को जीवन का आधार बना कर जीवन का आनन्द लें।स्वामी जी ने कहा कि महात्मा गांधी जी ने बड़े ही सुन्दर तरीके से सेवा को परिभाषित किया है कि ‘स्वयं को खोजने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि आप स्वयं को दूसरों की सेवा में खो दें’। ऋषियों ने भी जीवन के यही सूत्र दिये हैं कि दूसरों के कल्याण के लिये अपने आप को समर्पित कर देना ही जीवन का वास्तविक सार है। वैदिक ऋषि दधीचि ने लोक कल्याण के लिये अपने शरीर की हड्डियों को दान कर दिया था। उनका मानना था कि दूसरों का हित करना ही परम धर्म है। भारतीय इतिहास में अनेक दानियों का उल्लेख मिलता हैं जो अपने लिये नहीं बल्कि मानव कल्याण के लिये ही जियें। स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी ने कहा कि यह समय आत्म केंद्रित जीने का नहीं बल्कि परमार्थ केंद्रित होकर जीने का है। श्री मद्भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है ’सर्वभूत हिते रता:।’ व्यक्तित्व की सही पहचान और आंतरिक शक्ति की अनुभूति परोपकार और परमार्थ की भावना से ही होती हैं। जैसे-जैसे स्वभाव में परोपकार और सेवा के दिव्य गुणों का समावेश होता है वैसे ही अहंकार, घृणा और भेदभाव समाप्त हो जाता है। स्वामी जी ने कहा कि सेवा और सहानुभूति से समाज में एकजुटता आती हैं तथा जीवन का वास्तविक आनन्द एवं तृप्ति की अनुभूति भी तभी होती है जब हम परोपकार के लिये जियें। स्वामी जी ने कहा कि अपनी इच्छाओं के लिये जीना स्वार्थ पूर्ण जीवन है और आवश्यकताओं के लिये जीना से परोपकार और परमार्थ का मार्ग भी स्पष्ट होता है। आवश्यकतायें सार्वभौमिक भी हो सकती है जिससे कई व्यक्तियों को गरिमापूर्ण जीवन जीने का अवसर प्राप्त हो सकता है इसलिये सहायता, सहानुभूति और सेवा से युक्त जीवन जियें ताकि अन्तिम छोर पर खड़ा व्यक्ति भी गरिमापूर्ण जीवन जी सके।

Powered by myUpchar

error: Share this page as it is...!!!!