सुधार पर आशंका
कृषि सुधारों की दिशा में केंद्र सरकार की पहल के बाद कोविड संकट के बीच किसान यदि सडक़ों पर उतर रहे हैं तो उनकी शंकाओं का समाधान किया जाना सरकार का दायित्व बनता है। निस्संदेह भारत में किसान राजनीतिक दलों का बड़ा वोट बैंक रहा है। सत्तारूढ़ दल भी इसका अपवाद नहीं है। पार्टी के घोषणापत्र में किसानों के तमाम मुद्दों के अलावा उनकी आय दुगनी करना भी रहा है। सवाल यह है कि आजादी के बाद किसानों की दूसरी आजादी की बात कहकर सरकार जो सुधार लागू करना चाहती है, उसको लेकर किसान आशंकित क्यों हैं। हम न भूलें कि भयावह कोरोना संकट के बीच यदि हम देश की बड़ी आबादी को मुफ्त अनाज दे पाये तो उसके पीछे किसानों की खून-पसीने की फसल ही थी, जिसने देश को संकटकाल में आत्मविश्वास दिलाया। वजह यह भी थी कि अन्न के भंडार सरकार के नियंत्रण में थे। पिछले दिनों आये जीडीपी के डरावने आंकड़ों के बीच यदि किसी क्षेत्र में सुधार देखा गया तो वह कृषि ही था। कुछ दिन पहले हरियाणा के किसान सरकार के तीन अध्यादेशों के खिलाफ सडक़ों पर उतरे थे और पंजाब में भी धरनों का दौर जारी रहा। अब धीरे-धीरे आंदोलन उत्तर प्रदेश, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना आदि राज्यों में भी फैल गया। केवल गैर-भाजपाई राज्यों में ही नहीं, बल्कि भाजपा शासित राज्यों में भी किसान आंदोलनों की सुगबुगाहट तेज हुई है। गत पांच जून को लागू किये गये अध्यादेश और मौजूद संसद सत्र में पेश किये गये विधेयकों को लेकर किसानों के विरोध की वजह उन आशंकाओं को बताया जा रहा है, जिनको लेकर कहा जा रहा है कि खेती में पूंजीपतियों-बिचौलियों का वर्चस्व हो जायेगा। वहीं सरकार का दावा है कि ये विधेयक किसान को आजादी देते हैं और उसकी प्रगति का रास्ता साफ करते हैं। इससे किसानों पर लगी कई बंदिशें हटेंगी और वह मनचाहे दामों पर अपनी उपज बेच सकेगा।
वहीं किसान संगठनों की चिंता है कि धीरे-धीरे किसान की उपज से न्यूनतम समर्थन मूल्य का कवच छीना जा रहा है। साथ ही मंडी समितियों से मिला संरक्षण भी खत्म हो जायेगा। इसलिये वे विधेयकों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं। आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन को लेकर भी चिंताएं जतायी जा रही हैं कि किसान की भंडारण क्षमता न होने के कारण समृद्ध संसाधनों वाले लोग कालाबाजारी करने लगेंगे, जिससे किसान और उपभोक्ता के हितों पर कुठाराघात होगा। वहीं कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को लेकर भी आशंकाएं जतायी जा रही हैं कि इससे किसान अपने ही खेत में श्रमिक बन जायेगा। किसानों को आशंका है कि जो पूंजीपति ठेके पर कृषि उत्पाद खरीदेगा, उसे प्राकृतिक आपदा या अन्य तरीके से हुए नुकसान से कोई लेना-देना नहीं होगा, जिसका खमियाजा सिर्फ किसान को ही भुगतना होगा। किसान इस बात से भी आशंकित हैं कि कहीं भी उत्पाद बेचने की आजादी के साथ सरकार फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी को खत्म कर सकती है। किसानों की मांग है कि विधेयक में किसान को एमएसपी की गारंटी देने के स्पष्ट प्रावधान लाये जायें। जानकारों का मानना है कि सरकार विकसित देशों की तर्ज पर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग लागू करना चाहती है, जिसके परिणाम किसानों के हितों में नहीं रहे हैं। इसके अलावा भारत में कृषि की छोटी जोतों के चलते खेती व्यापार का नहीं, जीवनयापन का जरिया है। साथ ही अतीत के अनुभव बताते हैं कि सूखे और अकाल की स्थिति में लोग अन्न की कमी के नहीं, बल्कि उसकी कालाबाजारी का शिकार होते हैं। निस्संदेह आवश्यक वस्तु अधिनियम को बदलने और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के बाद सरकार का दखल अनाज भंडारण में खत्म हो जायेगा जो देश के गरीब लोगों के हित में भी नहीं है। इन बदलावों को लेकर देशव्यापी बहस होनी चाहिए। वैसे भी कृषि राज्यों का विषय है। संवैधानिक रूप से भी केंद्र को किसानों को प्रभावित करने वाले कानून की दिशा में आगे बढऩे से पहले राज्यों से परामर्श करना चाहिए था। जल्दबाजी में विधिवत प्रक्रिया को नजरअंदाज किया गया है।